हर बार जब “वंदे मातरम्” गाया जाता है, तो यह गीत हर भारतीय के मन में एक उम्मीद जगा जाता है! और यह याद दिलाता है कि हमारे देश की आज़ादी किन-किन संघर्षों से होकर गुज़री है। लेकिन क्या आप जानते है वंदे मातरम् की रचना कैसे हुई थी। कैसे 1873 में डिप्टी कलेक्टर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के साथ हुए एक अपमान ने उन्हें भारत का राष्ट्रगीत लिखने के लिए प्रेरित किया।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के साथ अपमानजनक घटना
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, जो दिल से एक राष्ट्रभक्त थे, उन्होंने क़ानून की पढ़ाई और सरकारी नौकरी (जेसोर जिले के डिप्टी कलेक्टर) करने के बाद अपने असली जुनून, लेखन को अपनाया। वह अपने पिता चंद्र चट्टोपाध्याय के नक्शेकदम पर चल रहे थे, जो मिदनापुर के डिप्टी कलेक्टर रह चुके थे।

वह 15 दिसंबर 1873 की शाम थी, जब मुर्शिदाबाद के डिप्टी कलेक्टर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय अपने घर लौट रहे थे। उनकी पालकी गलती से एक मैदान से गुजरने लगी, जहाँ अंग्रेज सैनिक क्रिकेट खेल रहे थे। इस मैच की कमान कर्नल डफिन संभाल रहे थे।
पालकी का वहां से गुजरना कर्नल डफिन को नागवार गुजरा। उन्होंने बंकिमबाबू को जबरदस्ती पालकी से नीचे उतारा और उनके साथ हाथापाई की। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होने के बावजूद, उन्हें चार-पांच घूंसे मारे गए। यह पल बंकिमचंद्र के लिए बेहद अपमानजनक था, और यह घटना कई ब्रिटिश और भारतीय लोगों की आँखों के सामने हुई।
न्याय की लड़ाई और कर्नल डफिन की ऐतिहासिक माफ़ी
अगले दिन, 16 दिसंबर 1873 को, बंकिमबाबू ने कोर्ट में कर्नल डफिन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। गवाहों को बुलाया गया, जिनमें से कई पीछे हट गए, लेकिन राजा योगेंद्र नारायण राय और कुछ अन्य लोग उनके साथ खड़े रहे।
12 जनवरी 1874 को इस मामले की आखिरी सुनवाई हुई। जज ने बंकिमचंद्र से केस वापस लेने का अनुरोध किया, जिस पर वह एक शर्त पर तैयार हुए: कर्नल डफिन को अदालत में सबके सामने माफी मांगनी होगी। हजार से ज्यादा लोगों के सामने कर्नल डफिन ने माफी मांगी, जो उस समय एक अभूतपूर्व घटना थी।
वंदे मातरम् की रचना: अपमान से देशभक्ति की प्रेरणा तक
यह घटना कुछ अंग्रेजों को इतनी चुभी कि उन्होंने चुपचाप बंकिमबाबू की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी। राजा योगेंद्र नारायण राय ने खतरे को भांप लिया और बंकिमचंद्र को लालगोला में रहने का न्योता दिया। वहाँ, मंदिरों से घिरे एक गेस्टहाउस में रहते हुए, बंकिमबाबू के मन में एक ही सवाल था – “देश के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?”
और इसी चिंतन के बीच, 31 जनवरी 1874 की रात लालगोला में बंकिमचंद्र ने “वंदे मातरम्” की रचना की। यह सिर्फ एक गीत नहीं था, बल्कि भारत के हजारों क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया।
आनंदमठ’ उपन्यास और ब्रिटिश सरकार का विरोध
इसके बाद उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ आया, जिसका हिस्सा “वंदे मातरम्” भी था। 1882 में जब यह किताब पूरी तरह छपी, तो ब्रिटिश सरकार को उसकी क्रांतिकारी भावना बेहद खलने लगी। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर मानसिक दबाव डाला और उपन्यास में बदलाव की मांग की। आखिरकार, बंकिमचंद्र ने 1885-86 में नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया। पर उनके लिखे शब्द अमर हो गए।
आज ‘वंदे मातरम्’ भारत का राष्ट्रगीत है, जो 145 साल बाद भी हर बार सुनते ही दिल में एक जोश और देशभक्ति जगा देता है। वंदे मातरम् की रचना सिर्फ एक गीत का जन्म नहीं, बल्कि स्वाधीनता संग्राम की एक महत्वपूर्ण प्रेरणा थी।
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