कल्पना कीजिए – 62 साल की एक महिला, पाँच बच्चों की माँ, और पति ने सिर्फ तीन शब्द कहे — ‘तलाक़, तलाक़, तलाक़’। बस, ज़िंदगी की पूरी कहानी एक पल में बदल गई।
जब उस महिला ने गुज़ारा भत्ता मांगा, वो भी सिर्फ लगभग ₹180 प्रति माह, तो पति ने ‘तलाक’ के बाद उसे घर से निकाल दिया।
यह मामला आपको किसी आम घरेलू विवाद जैसा लग सकता है, लेकिन अगले 7 सालों में, ₹180 का ये छोटा सा केस भारत के सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया। इसने देश में एक ऐसा राजनीतिक तूफान खड़ा किया, जिसने 400 से ज़्यादा सीटों वाली एक मजबूत सरकार को भी झुकने पर मजबूर कर दिया और भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया।
शाह बानो केस (Shah bano Case in Hindi)
यह कहानी है मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली शाह बानो बेगम की।
मामले की शुरुआत: तलाक़ और गुज़ारा भत्ता
साल 1932 में शाह बानो की शादी एक अमीर और मशहूर वकील मोहम्मद अहमद खान से हुई। उनके 05 बच्चे भी हुए। लेकिन शादी के लगभग 40 साल से ज़्यादा साथ रहने के बाद, खान ने एक छोटी उम्र की महिला से दूसरी शादी कर ली और शाह बानो को घर से निकाल दिया।
अप्रैल 1978 में, 62 वर्षीय शाह बानो ने CrPC (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा 125 के तहत अपने पति से गुज़ारा भत्ता (Maintenance) पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। यह एक धर्मनिरपेक्ष (Secular) क़ानून है जो हर बेसहारा पत्नी, बच्चे या माता-पिता को अपने पति/बेटे से गुज़ारा भत्ता पाने का हक़ देता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों।
कानूनी लड़ाई: शरीयत बनाम CrPC धारा 125
लेकिन उनके पति मोहम्मद अहमद खान खुद एक वकील थे। उन्होंने एक कानूनी चाल चली। जैसे ही शाह बानो ने केस किया, नवंबर 1978 में, खान ने उन्हें ‘अपरिवर्तनीय तलाक़’ (Irrevocable Talaq) दे दिया, जिसे शरीयत में तलाक-उल-बैन कहा जाता है। इसका मतलब था कि यह तलाक तत्काल और अंतिम (instant and final) है।
स्थानीय अदालत और फिर हाई कोर्ट ने शाह बानो के हक में फैसला सुनाया और कहा कि यह गुजारा भत्ता उनका अधिकार है।
लेकिन, मोहम्मद अहमद खान ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उनका तर्क था:
- शाह बानो अब उनकी पत्नी नहीं रहीं, इसलिए वह धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं हैं।
- इस्लामिक ‘पर्सनल लॉ’ (शरीयत) के मुताबिक, वह सिर्फ ‘इद्दत’ (तलाक के बाद की 90 दिन की अवधि) तक ही गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य हैं, उसके बाद नहीं।
अब यह केस सिर्फ शाह बानो का नहीं रहा था। यह एक बड़ा कानूनी सवाल बन गया था – “क्या एक धार्मिक पर्सनल लॉ, भारत के धर्मनिरपेक्ष कानून (CrPC 125) से ऊपर है?”
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (1985)
23 अप्रैल 1985… 7 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद, मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने एक ऐतिहासिक और सर्वसम्मत फैसला सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया: ‘कानून की नजर में सब बराबर हैं।’
अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिर्पेक्ष कानून है और यह हर भारतीय नागरिक पर लागू होता है, चाहे वो किसी भी धर्म का हो। यह कानून धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए है। कोर्ट ने कुरान का भी हवाला देते हुए कहा कि तलाकशुदा महिला को ‘मुता’ (ज़रूरी ज़रूरत के मुताबिक भत्ता) देने की बात कही गई है।
फैसला शाह बानो के हक में आया।
लेकिन कोर्ट सिर्फ यहीं नहीं रुका। उसने एक ऐसी टिप्पणी की, जिसने देश की राजनीति में आग लगा दी। कोर्ट ने कहा:
“यह बहुत दुख की बात है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में वादा किए गए ‘समान नागरिक संहिता’ (Uniform Civil Code – UCC) को लागू करने की दिशा में सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है।”
राजनीतिक तूफान और सरकार का ‘यू-टर्न’
सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला और खास कर समान नागरिक संहिता (UCC) वाली टिप्पणी, आग की तरह फैल गई।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई रूढिवादी मुस्लिम नेताओं ने इसे ‘इस्लाम पर हमला’ और ‘शरीयत में सीधा दखल’ करार दिया। उन्हें लगा कि अगर अदालत पर्सनल लॉ में ऐसे ही दखल देगी, तो उनकी धार्मिक पहचान खतरे में पड़ जाएगी।
देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। उस समय राजीव गांधी 414 सीटों के भारी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री थे।
शुरुआत में, कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया। लेकिन जैसे-जैसे विरोध बढ़ा और कांग्रेस ने कुछ महत्वपूर्ण उप-चुनावों में हार देखी, सरकार पर दबाव पड़ने लगा। कांग्रेस को अपना मुस्लिम वोट बैंक खिसकने का डर सताने लगा।
और फिर, राजीव गांधी की सरकार ने वो कदम उठाया, जिसे भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा ‘यू-टर्न’ और ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ का प्रतीक माना जाता है।
The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986
भारी राजनीतिक दबाव के आगे झुकते हुए, 1986 में, राजीव गांधी की सरकार संसद में एक नया बिल लेकर आई – ‘The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986‘।
इस कानून ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूरी तरह से पलट दिया।
- इसने तय किया कि एक मुस्लिम महिला को उसका पति सिर्फ ‘इद्दत’ (लगभग 90 दिन) तक ही गुजारा भत्ता देगा।
- 90 दिनों के बाद, महिला की जिम्मेदारी उसके मायके के परिवार या वक्फ बोर्ड की होगी, पति की नहीं।
- इस कानून ने मुस्लिम महिलाओं को CrPC की धारा 125 के दायरे से लगभग बाहर कर दिया।
सरकार के इस कदम का ज़बरदस्त विरोध हुआ। उस समय के युवा मंत्री, आरिफ मोहम्मद खान ने संसद में अपनी ही सरकार के खिलाफ एक जबरदस्त भाषण दिया और जब सरकार नहीं मानी, तो उन्होंने विरोध में मंत्री पद से इस्तिफ़ा दे दिया। बीजेपी और महिला संगठनों ने इस कानून को ‘प्रतिगामी’ (regressive) और ‘भेदभावपूर्ण’ बताया।
और 62 साल की शाहबानो, जो अपने ₹180 के हक के लिए लड़ रही थीं, उन्हें इस कानून के बाद अपने पूर्व पति से कुछ नहीं मिला।
कानून की वापसी: दानियाल लतीफी केस (2001)
कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। 2001 में सुप्रीम कोर्ट के पास ‘दानियाल लतीफी बनाम भारत संघ’ का मामला आया, जिसमें 1986 के इसी कानून को चुनौती दी गई थी।
इस बार सुप्रीम कोर्ट ने एक अनोखी और दूरदर्शी व्याख्या (Interpretation) की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1986 का क़ानून सही है, लेकिन… इसका मतलब यह नहीं कि गुज़ारा भत्ता सिर्फ 90 दिन का होगा। कोर्ट ने कहा:
“इस क़ानून का मतलब है कि पति को 90 दिन (इद्दत) के भीतर, अपनी पत्नी के पूरे भविष्य के लिए एक ‘उचित और न्यायसंगत प्रावधान’ (Reasonable and Fair Provision) यानी एकमुश्त बड़ी रक़म देनी होगी।”
इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के 1986 के क़ानून को रद्द (Cancel) किए बिना ही, शाह बानो वाले फैसले की आत्मा (Spirit) को फिर से ज़िंदा कर दिया।
शाह बानो केस का राजनीतिक अंजाम: तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण
यह इतिहास की सबसे बड़ी विडम्बनाओं में से एक है।
राजीव गांधी ने 1986 का कानून लाकर मुस्लिम रूढ़ीवादी नेताओं को तो खुश कर दिया, लेकिन उन पर ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ का जो आरोप लगा, उससे बहुसंख्यक हिंदू आबादी का एक बड़ा हिस्सा नाराज हो गया।
कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इसी ‘तुष्टिकरण’ के आरोप को ‘बैलेंस’ करने के लिए, सरकार ने एक और बड़ा कदम उठाया।
शाह बानो कानून (मई 1986) बनने से ठीक कुछ ही समय पहले, फरवरी 1986 में, सरकार के आदेश पर अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा दिए गए और हिंदुओं को वहां पूजा करने की इजाजत दे दी गई।
कहा जाता है कि एक तरफ शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटना, और दूसरी तरफ अयोध्या के ताले खोलना… कांग्रेस दोनों पक्षों को साधने की कोशिश कर रही थी, लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ। इन दो घटनाओं ने देश को धार्मिक आधार पर बांट दिया और बीजेपी को ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ (Pseudo-Secularism) के खिलाफ ‘हिंदू वोट बैंक’ का मुद्दा उठाने का एक बड़ा मौका मिल गया, जिसने राम जन्मभूमि आंदोलन को एक नई रफ्तार दी।
निष्कर्ष: एक केस जिसने भारत को बदल दिया
शाह बानो का केस सिर्फ एक तलाक या गुजारा भत्ते का मामला नहीं था। इस एक केस ने धर्मनिरपेक्षता, महिला अधिकार और वोट बैंक की राजनीति पर एक ऐसी बहस छेड़ दी, जिसकी गूंज आज भी ‘समान नागरिक संहिता’ (UCC) के रूप में हमें सुनाई देती है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
Q1: शाह बानो केस क्या था? (What was Shah Bano case?)
शाह बानो केस (1985) भारत के सुप्रीम कोर्ट का एक ऐतिहासिक फैसला था। इसमें 62 वर्षीय तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाह बानो को अपने पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार दिया गया था। यह केस CrPC की धारा 125 (धर्मनिरपेक्ष कानून) और मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) के बीच टकराव को लेकर था।
Q2: शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या था?
सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में फैसला सुनाया कि CrPC की धारा 125 सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। कोर्ट ने पति मोहम्मद अहमद खान को शाह बानो को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया और समान नागरिक संहिता (UCC) को लागू करने की आवश्यकता पर भी टिप्पणी की।
Q3: राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो केस के फैसले को क्यों पलटा?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मुस्लिम रूढ़िवादी समूहों ने भारी विरोध किया, इसे ‘इस्लाम में दखल’ बताया। अपने मुस्लिम वोट बैंक को खिसकने के डर से और बढ़ते राजनीतिक दबाव के कारण, राजीव गांधी सरकार 1986 में ‘The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act’ लाई, जिसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभावी ढंग से पलट दिया।
Q4: दानियाल लतीफी केस (2001) क्या है?
दानियाल लतीफी केस (2001) में, सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के कानून की फिर से व्याख्या की। कोर्ट ने 1986 के कानून को रद्द किए बिना यह फैसला सुनाया कि पति को ‘इद्दत’ अवधि (90 दिन) के भीतर अपनी पत्नी के पूरे भविष्य के लिए एक ‘उचित और न्यायसंगत’ एकमुश्त गुजारा भत्ता देना होगा, जिससे शाह बानो फैसले की भावना फिर से स्थापित हो गई।

