Hindi Controversy

हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा से जुड़े प्रावधान साफ-साफ दिए गए हैं, लेकिन फिर भी आज हिंदी भाषा (Hindi Controversy) को लेकर विवाद चल रहा है। हर राजनेता अपनी बयानबाजी में लगा है, कोई इसे ‘थोपने’ की बात करता है, तो कोई इसे राष्ट्रीय गौरव बताता है।

Hindi Controversy का असली इतिहास

लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह विवाद नया नहीं है? ये दशकों से चला आ रहा है! जब हिंदी को हमारे देश की राजभाषा बनाने का फैसला हुआ था, तब भी देश में एक बहुत बड़ा बवाल मचा था! आज हम उस असली इतिहास को जानेंगे, जो आपको समझाएगा कि ये विवाद आज भी क्यों उठते हैं

1. स्वतंत्रता से पहले की स्थिति और भाषा का सवाल

हमारा देश आज़ाद हुआ, लेकिन आज़ादी के साथ सबसे बड़ा सवाल था – हमारे देश की अपनी भाषा क्या होगी? अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी और मुगलों के समय फारसी का बोलबाला था। लेकिन अब जब देश अपना था, तो अपनी पहचान भी अपनी भाषा से ही बननी थी।

महात्मा गांधी जैसे बड़े नेताओं ने हिंदी या हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में देखा। वो चाहते थे कि एक ऐसी भाषा हो जो पूरे देश को जोड़ सके। लेकिन, ये इतना आसान नहीं था। जब संविधान सभा बनी और हमारे देश का संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई, तो भाषा के मुद्दे पर गहरे मतभेद सामने आने लगे।

2. संविधान सभा में बहस: राजभाषा पर मतभेद

संविधान सभा में भाषा को लेकर बहस शुरू हो गई, एक तरफ वो लोग थे जो हिंदी को तुरंत राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। उनका तर्क था कि हिंदी भारत की सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली जाती है, ये हमारी सांस्कृतिक पहचान है और राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी है।

लेकिन, दूसरी तरफ, खासकर दक्षिण भारत के नेता और जो गैर-हिंदी भाषी राज्यों के प्रतिनिधि थे वो इस बात से सहमत नहीं थे। उन्हें लगा कि हिंदी उन पर थोपी जा रही है। उन्हें डर था कि इससे उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषाओं पर कम ध्यान दिया जाएगा होगी और सरकारी नौकरियों में भी उन्हें नुकसान होगा।

टी.टी. कृष्णामाचारी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे नेताओं ने खुले तौर पर अपनी चिंताएं व्यक्त कीं। उनका कहना था कि अंग्रेजी को कुछ समय के लिए और जारी रखा जाना चाहिए ताकि सभी क्षेत्रों को सामंजस्य बिठाने का समय मिल सके। यह सिर्फ भाषा की बात नहीं थी, ये पहचान, प्रतिनिधित्व और भविष्य के अवसरों की लड़ाई भी थी।

3. विरोध का स्वरूप और प्रसार

संविधान सभा में बहस चल ही रही थी, लेकिन जैसे-जैसे हिंदी को राजभाषा बनाने की बात आगे बढ़ी, देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में, विरोध और तेज होता गया। तमिलनाडु (जो उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी था) में ये विरोध और ज्यादा बढ़ गया। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, यानी DMK जैसे राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों ने इस आंदोलन को हवा दी। जगह-जगह रैलियां हुईं, हड़तालें हुईं, स्कूलों में बंद रहे। पोस्टर अभियान चले और लोग सड़कों पर उतर आए।

कुछ जगहों पर प्रदर्शन हिंसक भी हो गए, झड़पें हुईं और गिरफ्तारियां भी की गईं। ये उन्हे लग रहा था कि उत्तर भारत की भाषा और संस्कृति को दक्षिण भारत पर थोपा जा रहा है।

4. समझौता और संवैधानिक प्रावधान

इस जबरदस्त विरोध और मतभेदों के चलते, संविधान सभा में एक समझौता करना पड़ा। जिसे मुंशी-आयंगर फॉर्मूला के नाम से जाना गया। इस फॉर्मूले के तहत, ये तय हुआ कि

हिंदी हमारी राजभाषा होगी, लेकिन अगले 15 सालों तक यानी 1965 तक अंग्रेजी का इस्तेमाल सरकारी कामकाज में जारी रहेगा। 1965 के बाद संसद को यह तय करना था कि अंग्रेजी को जारी रखा जाए या नहीं। ये एक संतुलित कदम था जिसने विरोध को कुछ हद तक शांत किया।

हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा से जुड़े प्रावधान दिए गए। लेकिन 1965 की समय सीमा पास आते ही, दक्षिण भारत में फिर से विरोध बढ़ने लगा। इसे देखते हुए, सरकार ने राजभाषा अधिनियम 1963 पारित किया। इस अधिनियम ने अंग्रेजी को हिंदी के साथ सहायक राजभाषा के रूप में अनिश्चित काल तक जारी रखने का प्रावधान किया। ये एक महत्वपूर्ण फैसला था जिसने देश में भाषा से जुड़े तनाव को काफी हद तक कम किया।

निष्कर्ष और आज का परिप्रेक्ष्य

हिंदी को राजभाषा (Hindi Controversy) बनाने का ये सफर आसान नहीं रहा। ये सिर्फ भाषा का सवाल नहीं था, बल्कि ये क्षेत्रीय पहचान, समानता और भाषाई विविधता को बनाए रखने की चुनौती थी। आज भी हिंदी हमारी राजभाषा है और अंग्रेजी सहायक राजभाषा के रूप में काम करती है। भाषाओं को लेकर आज भी बहसें होती हैं, लेकिन 1950 और 60 के दशक के उस बड़े बवाल ने हमें सिखाया कि language Policy कितनी संवेदनशील होती है।

ये था हिंदी को राजभाषा बनाने के पीछे का असली इतिहास। आपको ये जानकारी कैसी लगी? इस विषय पर आपकी क्या राय है, हमें कमेंट्स में जरूर बताएं।

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