
18 नवंबर 1981, शाम 5 बजे: ठंडी सर्दियों की शुरुआत थी, सूरज ढलते ही अंधेरा गांव पर छा गया था। तभी गांव में अचानक गोलियों की आवाजें गूंजने लगी । लोगों ने जब घर से बाहर निकल कर देखा चारों ओर चीख-पुकार, दौड़ते लोग, गिरते शरीर… और पुलिस की वर्दी में कुछ लोग अंधाधुंध गोलियां बरसा रहे थे, लेकिन कुछ ही देर मे गांव अचानक सन्नाटे में तब्दील हो गई । 24 बेगुनाह लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई । यह कोई साधारण हमला नहीं था, बल्कि एक भयानक नरसंहार था ।
कहाँ और कैसे हुआ दिहुली नरसंहार?
उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर जसराना कस्बे के गांव दिहुली में गाँव मे हथियारों से लैस कुछ लोग गांव में घुसे और ताबड़तोड़ गोलियां बरसाने लगे। जो करीब 4 घंटे तक चला। इस दौरान 24 लोग मारे गए ।
उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। घटना के बाद पूरे प्रदेश में आक्रोश फैल गया था। वीपी सिंह के खिलाफ जबरदस्त नारेबाजी हुई और विपक्ष ने यूपी की सुरक्षा व्यवस्था पर बड़े सवाल उठाए। इस कांड ने न केवल यूपी बल्कि दिल्ली तक की राजनीति को हिला कर रख दिया था।
इस हत्याकांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद गांव पहुंचीं। उन्होंने पैदल ही पूरे गांव का दौरा किया और पीड़ितों से मुलाकात की। विपक्ष ने इस नरसंहार को लेकर इंदिरा सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया था। बाबू जगजीवन राम जैसे विपक्षी नेता भी वहां पहुंचे और गांव का दौरा कर हालात का जायजा लिया।
गवाह की आंखों देखी: “मौत नाच रही थी!
इस भीषण हत्याकांड के चश्मदीद गवाह लायक सिंह बताते है कि वह उस शाम अपने भाई के खेत पर गए थे। लौटते वक्त उन्होंने देखा कि 20-21 लोग राइफल, बंदूक और तमंचों से लैस होकर गांव की ओर बढ़ रहे थे, ये सभी पुलिस की वर्दी में आए थे जिससे गाँव के लोगों को शुरुवात मे कुछ शक भी नहीं हुआ । लेकिन जब वो नजदीक आए उन्होंने देखा कि ये तो कुख्यात डकैत थे संतोष, राधे, कप्तान, कमरुद्दीन, रामसेवक, श्यामवीर और कुंवरपाल। डर के मारे वे गांव के एक कुएं के पास गड्ढे में छिप गए। डकैतों ने सबसे पहले खेत में काम कर रहे ज्वाला प्रसाद जो कि वहाँ के निवासी थे को गोली मारी, जो दूर खेत में जा गिरे। इसके बाद उन्होंने गांव में घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं।
80 साल की चमेली देवी आज भी उस रात को याद कर सिहर उठती हैं। वह बताती हैं, “अचानक गोलियां चलने लगीं। मैंने देखा कि कई लोग जमीन पर पड़े तड़प रहे थे। मैं छत की ओर भागी, लेकिन पैर में गोली लग गई और मेरा बच्चा छत से गिरकर घायल हो गया। डकैतों ने किसी को नहीं बख्शा, जो मिला उसे बेरहमी से मार दिया।
मौत का तांडव और डकैतों की दावत
नरसंहार के बाद ये सभी लोग ठाकुरों के मोहल्ले में चले गए। यहीं गिरोह ने जश्न मनाया और दावत की। घटना के बाद इलाके में ऐसा भय था कि लोग अपने ही गांव में जाने से डर रहे थे। डकैतों ने न सिर्फ हत्याएं कीं, बल्कि लूटपाट भी की। वे करधनी, चांदी के लच्छे, जेवर और कपड़े जो भी मिला लूटकर ले गए।
हलाके घटना के बाद कई महीनों तक पुलिस और पीएसी गांव में तैनात रही। 1984 में हाईकोर्ट के आदेश पर यह केस इलाहाबाद के सेशन कोर्ट में ट्रांसफर किया गया, जहां अक्टूबर 2024 तक मुकदमा चला। फिर इसे मैनपुरी डकैती कोर्ट में भेज दिया गया।
क्यों हुआ दिहुली नरसंहार?
पुलिस चार्जशीट के अनुसार, इस नरसंहार की जड़ें जातीय दुश्मनी में थीं। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले अभियुक्त अगड़ी जाति से थे। पहले संतोष, राधे और कुंवरपाल एक ही गैंग में थे। लेकिन कुंवरपाल दलित समुदाय से था और उसकी मित्रता एक अगड़ी जाति की महिला से थी। यह बात संतोष और राधे को नागवार गुजरी, जिससे दुश्मनी की शुरुआत हुई। इसके बाद संदिग्ध परिस्थितियों में कुंवरपाल की हत्या कर दी गई।
पुलिस ने इस हत्याकांड में गैंग के दो सदस्यों को गिरफ्तार किया, गिरफ़्तारी के समय उनके पास से भारी मात्रा में हथियार बरामद किए। लेकिन डकैतों को लगा कि उनके गैंग के दो सदस्यों की गिरफ्तारी में जाटव जाति के लोगों का हाथ था क्युकी इस घटना में जाटव समुदाय के तीन लोगों को गवाह बनाया था । इसी रंजिश के चलते दिहुली नरसंहार को अंजाम दिया गया।
इस मामले में कुल 17 आरोपी थे, जिनमें से 13 की मौत हो चुकी है। 11 मार्च को एडीजे (विशेष डकैती प्रकोष्ठ) इंद्रा सिंह की अदालत में तीन आरोपी- कप्तान सिंह, रामसेवक और रामपाल को दोषी ठहराया गया जिसे 18 मार्च को फांसी की सजा सुनाई गई।