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Inter supply results 2025 का परिणाम घोषित: ऐसे देखें अपना परिणाम

Inter supply results 2025: आंध्र प्रदेश बोर्ड ऑफ इंटरमीडिएट एजुकेशन द्वारा आज इंटरमीडिएट के रिजल्ट जारी कर दिया गया, जिसके इंतज़ार छात्रों को काफी दिन से था। ये सभी छात्र मई 2025 मे हुई सप्लीमेंट्री परीक्षाओं में भाग लिया था। सप्लीमेंट्री परीक्षाएं उन छात्रों के लिए एक दूसरा मौका होती हैं जो मुख्य बोर्ड परीक्षाओं में एक या अधिक विषयों में उत्तीर्ण नहीं हो पाते हैं। ये परीक्षाएं छात्रों को अपना साल बर्बाद होने से बचाने और अपने अंकों को बेहतर बनाने का अवसर प्रदान करती हैं।

Inter supply results 2025 देखने के दो आसान तरीके

छात्र अपना रिजल्ट निम्न दो तरीके से देख सकते है जो इस सप्लीमेंट्री परीक्षाएं मे पास हुए है ।

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आपका परिणाम देखने का सबसे सीधा तरीका BIEAP की आधिकारिक वेबसाइट है। इन सरल चरणों का पालन करें:

  • सबसे पहले, आधिकारिक वेबसाइट resultsbie.ap.gov.in पर जाएं।
  • वहां आपको “AP 1st या 2nd Year Supplementary Results 2025” का लिंक मिलेगा। उस पर क्लिक करें।
  • अब, अपना रोल नंबर और जन्मतिथि जैसे आवश्यक विवरण दर्ज करें।
  • विवरण जमा करते ही, आपका परिणाम स्क्रीन पर दिखाई देगा।
  • अपने परिणाम की जांच करें और भविष्य के संदर्भ के लिए इसे डाउनलोड करना न भूलें।

2. व्हाट्सएप के माध्यम से (सबसे आसान तरीका!):

आजकल सब कुछ व्हाट्सएप पर है, तो आपके परिणाम क्यों नहीं? BIEAP ने छात्रों के लिए एक बेहतरीन सुविधा शुरू की है। आप ‘मन मित्र’ नामक व्हाट्सएप-आधारित गवर्नेंस सेवा के माध्यम से भी अपनी मार्क्स मेमो प्राप्त कर सकते हैं:

  • अपने फ़ोन में 9552300009 नंबर सेव करें।
  • इस नंबर पर बस एक “Hi” संदेश भेजें।
  • आपको कुछ स्वचालित प्रॉम्प्ट मिलेंगे।
  • आवश्यक क्रेडेंशियल (जैसे आपका रोल नंबर) जमा करें।
  • कुछ ही पलों में, आपका स्कोरकार्ड सीधे आपकी व्हाट्सएप चैट पर भेज दिया जाएगा!

मुख्य इंटरमीडिएट पब्लिक परीक्षा (IPE) के परिणाम इस साल 12 अप्रैल को घोषित किए गए थे। उस समय, 1st ईयर के छात्रों का पास प्रतिशत 67% था, जबकि 2nd ईयर के छात्रों का 83% था। जिन छात्रों को मुख्य परीक्षा में एक या अधिक विषयों में सफलता नहीं मिल पाई थी, उन्हें मई 2025 में आयोजित सप्लीमेंट्री परीक्षाओं में फिर से बैठने का अवसर दिया गया था। यह मौका उन सभी छात्रों के लिए था जो अपनी परफॉर्मेंस को बेहतर बनाना चाहते थे और अब उनके प्रयास रंग लाए हैं!

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हिंदी को राजभाषा बनाने पर हुआ था बवाल | Hindi Controversy का असली इतिहास जानिए

हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा से जुड़े प्रावधान साफ-साफ दिए गए हैं, लेकिन फिर भी आज हिंदी भाषा (Hindi Controversy) को लेकर विवाद चल रहा है। हर राजनेता अपनी बयानबाजी में लगा है, कोई इसे ‘थोपने’ की बात करता है, तो कोई इसे राष्ट्रीय गौरव बताता है।

Hindi Controversy का असली इतिहास

लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह विवाद नया नहीं है? ये दशकों से चला आ रहा है! जब हिंदी को हमारे देश की राजभाषा बनाने का फैसला हुआ था, तब भी देश में एक बहुत बड़ा बवाल मचा था! आज हम उस असली इतिहास को जानेंगे, जो आपको समझाएगा कि ये विवाद आज भी क्यों उठते हैं

1. स्वतंत्रता से पहले की स्थिति और भाषा का सवाल

हमारा देश आज़ाद हुआ, लेकिन आज़ादी के साथ सबसे बड़ा सवाल था – हमारे देश की अपनी भाषा क्या होगी? अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी और मुगलों के समय फारसी का बोलबाला था। लेकिन अब जब देश अपना था, तो अपनी पहचान भी अपनी भाषा से ही बननी थी।

महात्मा गांधी जैसे बड़े नेताओं ने हिंदी या हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में देखा। वो चाहते थे कि एक ऐसी भाषा हो जो पूरे देश को जोड़ सके। लेकिन, ये इतना आसान नहीं था। जब संविधान सभा बनी और हमारे देश का संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई, तो भाषा के मुद्दे पर गहरे मतभेद सामने आने लगे।

2. संविधान सभा में बहस: राजभाषा पर मतभेद

संविधान सभा में भाषा को लेकर बहस शुरू हो गई, एक तरफ वो लोग थे जो हिंदी को तुरंत राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। उनका तर्क था कि हिंदी भारत की सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली जाती है, ये हमारी सांस्कृतिक पहचान है और राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी है।

लेकिन, दूसरी तरफ, खासकर दक्षिण भारत के नेता और जो गैर-हिंदी भाषी राज्यों के प्रतिनिधि थे वो इस बात से सहमत नहीं थे। उन्हें लगा कि हिंदी उन पर थोपी जा रही है। उन्हें डर था कि इससे उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषाओं पर कम ध्यान दिया जाएगा होगी और सरकारी नौकरियों में भी उन्हें नुकसान होगा।

टी.टी. कृष्णामाचारी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे नेताओं ने खुले तौर पर अपनी चिंताएं व्यक्त कीं। उनका कहना था कि अंग्रेजी को कुछ समय के लिए और जारी रखा जाना चाहिए ताकि सभी क्षेत्रों को सामंजस्य बिठाने का समय मिल सके। यह सिर्फ भाषा की बात नहीं थी, ये पहचान, प्रतिनिधित्व और भविष्य के अवसरों की लड़ाई भी थी।

3. विरोध का स्वरूप और प्रसार

संविधान सभा में बहस चल ही रही थी, लेकिन जैसे-जैसे हिंदी को राजभाषा बनाने की बात आगे बढ़ी, देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में, विरोध और तेज होता गया। तमिलनाडु (जो उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी था) में ये विरोध और ज्यादा बढ़ गया। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, यानी DMK जैसे राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों ने इस आंदोलन को हवा दी। जगह-जगह रैलियां हुईं, हड़तालें हुईं, स्कूलों में बंद रहे। पोस्टर अभियान चले और लोग सड़कों पर उतर आए।

कुछ जगहों पर प्रदर्शन हिंसक भी हो गए, झड़पें हुईं और गिरफ्तारियां भी की गईं। ये उन्हे लग रहा था कि उत्तर भारत की भाषा और संस्कृति को दक्षिण भारत पर थोपा जा रहा है।

4. समझौता और संवैधानिक प्रावधान

इस जबरदस्त विरोध और मतभेदों के चलते, संविधान सभा में एक समझौता करना पड़ा। जिसे मुंशी-आयंगर फॉर्मूला के नाम से जाना गया। इस फॉर्मूले के तहत, ये तय हुआ कि

हिंदी हमारी राजभाषा होगी, लेकिन अगले 15 सालों तक यानी 1965 तक अंग्रेजी का इस्तेमाल सरकारी कामकाज में जारी रहेगा। 1965 के बाद संसद को यह तय करना था कि अंग्रेजी को जारी रखा जाए या नहीं। ये एक संतुलित कदम था जिसने विरोध को कुछ हद तक शांत किया।

हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा से जुड़े प्रावधान दिए गए। लेकिन 1965 की समय सीमा पास आते ही, दक्षिण भारत में फिर से विरोध बढ़ने लगा। इसे देखते हुए, सरकार ने राजभाषा अधिनियम 1963 पारित किया। इस अधिनियम ने अंग्रेजी को हिंदी के साथ सहायक राजभाषा के रूप में अनिश्चित काल तक जारी रखने का प्रावधान किया। ये एक महत्वपूर्ण फैसला था जिसने देश में भाषा से जुड़े तनाव को काफी हद तक कम किया।

निष्कर्ष और आज का परिप्रेक्ष्य

हिंदी को राजभाषा (Hindi Controversy) बनाने का ये सफर आसान नहीं रहा। ये सिर्फ भाषा का सवाल नहीं था, बल्कि ये क्षेत्रीय पहचान, समानता और भाषाई विविधता को बनाए रखने की चुनौती थी। आज भी हिंदी हमारी राजभाषा है और अंग्रेजी सहायक राजभाषा के रूप में काम करती है। भाषाओं को लेकर आज भी बहसें होती हैं, लेकिन 1950 और 60 के दशक के उस बड़े बवाल ने हमें सिखाया कि language Policy कितनी संवेदनशील होती है।

ये था हिंदी को राजभाषा बनाने के पीछे का असली इतिहास। आपको ये जानकारी कैसी लगी? इस विषय पर आपकी क्या राय है, हमें कमेंट्स में जरूर बताएं।

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हिटलर की ‘अंतिम गलती’: एक ऐसा फैसला जिसने बदल दी दुनिया का इतिहास

हिटलर की ‘अंतिम गलती'(Last mistake of Hitler): क्या आप जानते हैं इतिहास में एक ऐसा पल आया था जब दुनिया का सबसे ताकतवर तानाशाह, हिटलर, एक ऐसी गलती कर बैठा जिसने उसके पूरे साम्राज्य को तबाह कर दिया? एक ऐसा फैसला जिसने लाखों जिंदगियां लील लीं और दूसरे विश्व युद्ध का पूरा रुख ही मोड़ दिया। जब पूरी दुनिया हिटलर की ताक़त से थर-थर कांप रही थी, तब उसकी एक भूल ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।

हिटलर की ‘अंतिम गलती’

‘जनबल’ के इस ख़ास पोस्ट में, हम बात करेंगे हिटलर के उस विजय रथ की, और उस ‘भूल’ की जिसने उसके सारे सपनों को चूर-चूर कर दिया। यहाँ हम सिर्फ़ इतिहास के सूखे तथ्य नहीं जानेंगे, बल्कि उन फ़ैसलों के पीछे छिपी मनोविज्ञान और उनके भयानक नतीजों को भी समझेंगे।

कहानी की शुरुआत: 1941 का वो मोड़

कहानी शुरू होती है 1941 से। उस वक़्त जर्मनी ने यूरोप के एक बड़े हिस्से पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया था। फ्रांस घुटनों पर था, और ब्रिटेन अकेला संघर्ष कर रहा था। पूरी दुनिया को लगने लगा था कि हिटलर को रोकना अब नामुमकिन है। लेकिन, हिटलर के दिमाग में एक और कहीं ज़्यादा बड़ा और ख़तरनाक प्लान पनप रहा था – सोवियत संघ पर हमला!

इस ऑपरेशन का नाम था ऑपरेशन बारब्रोसा। ये नाम याद रखिएगा, क्योंकि इतिहास बताता है कि यही वो ऑपरेशन था जो हिटलर की सबसे बड़ी और घातक गलती साबित हुई।

नाज़ी जर्मनी बनाम सोवियत संघ

एक तरफ़ नाज़ी जर्मनी और दूसरी तरफ़ स्टालिन का सोवियत संघ। इन दोनों के बीच एक ‘अनाक्रमण समझौता’ (Non-aggression Pact) था, यानी उन्होंने क़सम खाई थी कि वे एक-दूसरे पर कभी हमला नहीं करेंगे। लेकिन हिटलर की महत्वाकांक्षाएं कहीं बड़ी थीं। उसे लगता था कि अगर उसे पूरी दुनिया पर राज करना है, तो सबसे पहले सोवियत संघ को हराना ही होगा। उसकी नस्लीय और कम्युनिस्ट-विरोधी विचारधारा में, कम्युनिस्ट उसके सबसे बड़े दुश्मन थे।

22 जून, 1941 को, हिटलर ने इस समझौते को तार-तार कर दिया। सोवियत संघ पर अचानक हमला कर दिया गया। ये इतिहास का सबसे बड़ा ज़मीनी हमला था, जिसमें लगभग 4 मिलियन धुरी सेना शामिल थी! शुरुआत में जर्मन सेना ने सोवियत सैनिकों को तेज़ी से पीछे धकेला, क्योंकि सोवियत संघ की सेना तैयार नहीं थी। उन्हें लगता था कि जर्मनी समझौता नहीं तोड़ेगा। जर्मन सेना इतनी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी कि मॉस्को तक पहुँचना उन्हें बेहद आसान लग रहा था।

अहंकार का खेल: हिटलर की ‘साइकोलॉजी’

अब यहाँ आता है मनोविज्ञान का सबसे अहम पहलू। इतिहास में ऐसे बहुत कम लोग हुए हैं जिनके फ़ैसलों को सिर्फ़ सैन्य रणनीति से नहीं, बल्कि उनके गहरे मनोविज्ञान से भी समझा जा सकता है। हिटलर के निर्णय लेने की प्रक्रिया पर उसके ‘अहंकार’ और ‘अत्यधिक आत्मविश्वास’ (Extreme Overconfidence) का बहुत बड़ा असर था।

विशेषज्ञ मानते हैं कि हिटलर एक ‘नार्सिसिस्ट’ था। उसका अहंकार इस हद तक बढ़ चुका था कि वह किसी की आलोचना सुनता ही नहीं था। जब उसके टॉप सैन्य जनरलों ने उसे चेतावनी दी कि सोवियत संघ का क्षेत्र बहुत विशाल है, और वहाँ की “रूस की हड्डियां गला देने वाली सर्दी” बहुत तेज़ होती है, साथ ही रूसी सेना भी काफ़ी मज़बूत है, तो हिटलर ने उनकी बातों को सिर्फ़ डरपोकपन मानकर दरकिनार कर दिया।

रूस की भीषण सर्दी

लेकिन, जब जर्मन सेना मॉस्को के दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी, तो उन्हें इंसानों से नहीं, बल्कि एक कहीं ज़्यादा ख़तरनाक दुश्मन का सामना करना पड़ा – दिसंबर 1941 की वो हड्डियां गला देने वाली भयंकर सर्दी।

जर्मन सेना शीतकालीन युद्ध (winter warfare) के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। उनके कपड़े, उनके हथियार, उनके टैंक – सब कुछ जमने लगे। टैंकों के इंजन स्टार्ट नहीं हो रहे थे, सैनिक हाइपोथर्मिया से मर रहे थे। हाइपोथर्मिया एक ऐसी स्थिति है, जिसमें शरीर का तापमान सामान्य से काफ़ी कम हो जाता है। और ठीक इसी वक़्त, सोवियत संघ की सेना ने अपना ज़ोरदार जवाबी हमला शुरू कर दिया।

स्टालिन की रणनीति

स्टालिन ने हिटलर की इस बड़ी गलती का पूरा फायदा उठाया। उसने अपनी सेना को फिर से संगठित किया और ‘जली हुई धरती की नीति’ (Scorched Earth Policy) अपनाई – यानी जहां से जर्मन सेना गुज़र रही थी, वहां सब कुछ जला दिया जा रहा था ताकि उन्हें कुछ भी खाने या आश्रय के लिए न मिले।

और सबसे बड़ा मोड़ आया स्टेलिनग्राद (Stalingrad) की लड़ाई में। ये द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे खूनी और निर्णायक लड़ाइयों में से एक थी। हिटलर ने स्टेलिनग्राद को हर हाल में जीतने का आदेश दिया, चाहे उसके लिए कितनी भी जानें क्यों न जाएं। उसकी सेना ने इस लड़ाई में भयंकर नुकसान उठाया, और आख़िरकार उन्हें आत्मसमर्पण करना ही पड़ा। यहीं वो पल था, जब हिटलर की ‘अजेयता का मिथक’ (Invincibility Myth) भी टूट गया। और उसकी यह ‘अंतिम गलती’ ने उसके साम्राज्य के पतन की शुरुआत कर दी।

परिणाम और सीख

स्टेलिनग्राद के बाद जर्मनी की हार का काउंटडाउन शुरू हो गया। रूस में मिली इस भीषण हार ने न सिर्फ़ जर्मन सेना को कमज़ोर किया, बल्कि उनके संसाधनों को भी ख़त्म कर दिया। मित्र देशों की सेनाओं ने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया, जिसके बाद जर्मनी को तीन तरफ़ से घेरा गया – पूरब से रूस ने, और पश्चिम से ब्रिटेन और अमेरिका ने।

हिटलर की ये ‘अंतिम गलती’ सिर्फ़ एक सैन्य चूक नहीं थी। ये उसके अहंकार, उसके रणनीतिक अंधेपन, और उसकी अवास्तविक महत्वाकांक्षाओं का सीधा परिणाम था। इतिहास हमें सिखाता है कि कितनी भी ताक़तवर सेना क्यों न हो, अगर नेताओं के फ़ैसले गलत होते हैं, तो उसका अंजाम भयानक ही होता है।

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भारतीय नदियों का आध्यात्मिक व सांस्कृतिक महत्व

भारतीय देश में नदियाँ सिर्फ़ जल स्रोत नहीं, बल्कि देश की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक पहचान का हिस्सा हैं। भारतीय नदियाँ प्राचीन काल से ही भारतीय सभ्यताओं का आधार रही हैं। चाहे वह हिमालय की गंगा हो, जो करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है, या यमुना, जो कृष्ण की कहानियों को उजागर करती है, या गोदावरी, जो दक्षिण भारत की जीवनरेखा में एक अहम भूमिका निभाती है, हर नदी अपनी एक कहानी सुनाती है। लेकिन बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन ने इन नदियों के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। आइए, भारत की कुछ प्रमुख नदियों व उनके महत्व और वर्तमान स्थिति पर एक नज़र डालें।

कुछ भारतीय नदियों का अवलोकन

भारत में नदियों को चार प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जाता है: हिमालयी, दक्कन, तटीय और अंतर्देशीय नदियाँ। इनमें से हिमालयी और दक्कन नदियाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं। यहाँ कुछ प्रमुख नदियों की सूची और उनकी विशेषताएँ दी गई हैं:

  • गंगा: यह 2,525 किमी लंबी नदी है। यह भारत की राष्ट्रीय नदी है। यह हिमालय (उत्तराखंड के गंगोत्री हिमनद से) निकलती है और बंगाल की खाड़ी में मिलती है। यह उत्तर भारत की कृषि और आध्यात्मिकता का आधार है। यह भारत की महत्वपूर्ण नदियों मेे से एक है और इसे हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है।
  • यमुना: यह 1,376 किमी लंबी है व गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी हैं। यह यमुनोत्री (उत्तरकाशी) से 30 किमी उत्तर, गढ़वाल में) नामक जगह से निकलती है और प्रयागराज में गंगा से मिल जाती है। दिल्ली की जीवनरेखा होने के बावजूद, यह नदी प्रदूषण की गंभीर समस्या से जूझ रही है।
  • ब्रह्मपुत्र: यह भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। यह तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। इसका उद्गम हिमालय के उत्तर में तिब्बत के पुरंग जिले में स्थित मानसरोवर झील के निकट होता है। इसकी कुल लम्बाई 2900 किमी है व इसका 916 किमी भाग भारत में स्थित है। यह बाढ़ और जलविद्युत उत्पादन के लिए जानी जाती है।
  • गोदावरी: यह नदी भारत की दूसरी सबसे लंबी नदी है। यह नदी 1,465 किमी लंबी है। यह दक्षिण भारत की सबसे लंबी नदी है व इसे ‘दक्षिण गंगा’ भी कहते हैं। यह महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सिंचाई का मुख्य स्रोत है।
  • कावेरी: यह नदी 800 किमी लंबी है। यह कर्नाटक और तमिलनाडु की प्रमुख नदी है। यह प्राचीन काल से ही दक्षिण भारत की संस्कृति और कृषि का हिस्सा रही है।

नदियों का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व

भारत में नदियाँ सिर्फ़ जल स्रोत नहीं, बल्कि आध्यात्मिकता और संस्कृति का प्रतीक हैं। गंगा को भारत में ‘माँ’ के रूप में पूजा जाता है, और इसका जल पवित्र माना जाता है। हिंदू धर्म में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को प्रयागराज में विशेष महत्व दिया जाता है। हर साल लाखों श्रद्धालु कुंभ मेले में स्नान करने आते हैं।

इसी तरह, नर्मदा नदी को शिव की पुत्री माना जाता है, और इसके किनारे बने शिवलिंग (बाणलिंग) पूजनीय हैं। कावेरी नदी को भी ‘दक्षिणी गंगा’ कहा जाता है, और इसका जल पापों से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है। प्राचीन ग्रंथों जैसे ऋग्वेद में सरस्वती नदी का उल्लेख एक शक्तिशाली नदी के रूप में हुआ है, जो अब गायब हो चुकी है।

भारत में नदियों का आर्थिक महत्व: कृषि, जलविद्युत और परिवहन

यह नदियाँ भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। भारत के बहुत से महत्वपूर्ण कार्य इन नदियों के कारण संभव है। ये भारत के निम्नलिखित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं:

  • कृषि: गंगा, यमुना, गोदावरी और कावेरी जैसी नदियाँ लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित करती हैं। उदाहरण के लिए, कावेरी नदी तमिलनाडु और कर्नाटक में चावल की खेती का आधार है। गंगा नदी सिचांई में धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू और गेहूं जैसी फसलें उगाई जाती हैं, जो भारत के कृषि क्षेत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
  • जलविद्युत: भारत में ब्रह्मपुत्र और नर्मदा जैसी नदियों पर बने बांध (जैसे हीराकुड और सरदार सरोवर) बिजली उत्पादन में योगदान देते हैं।
  • परिवहन: कुछ नदियाँ, जैसे गंगा और ब्रह्मपुत्र, जल परिवहन के लिए उपयोगी हैं, जिससे माल ढुलाई सस्ती होती है व यह पर्यावरण के अनुकूल होती है।

भारत में नदियों के सामने चुनौतियाँ

भारत की नदियाँ आज कई समस्याओं से जुझ रही हैं। मनुष्य, कंपनियों व अन्य कारणों द्वारा इनहें दूषित किया जा रहा हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • प्रदूषण: गंगा और यमुना जैसी नदियाँ औद्योगिक और घरेलू कचरे से बुरी तरह प्रदूषित हैं। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) की एक रिपोर्ट के अनुसार, गंगा का जल कई जगहों पर स्नान के लिए भी अनुप्युक्त पाया गया है।
  • जलवायु परिवर्तन: हिमालयी नदियाँ ग्लेशियरों के पिघलने से प्रभावित हो रही हैं, जिसके कारण बाढ़, बादल फटना और सूखे की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
  • नदी जोड़ परियोजना: सरकार की नदी जोड़ परियोजना का उद्देश्य बाढ़ और सूखे की समस्या को कम करना है, लेकिन पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो सकता है।

भारतीय सरकार द्वारा नदियों को बचाने का प्रयास

भारत सरकार ने नदियों को बचाने के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • नमामि गंगे: यह गंगा नदी को स्वच्छ करने की सबसे बड़ी परियोजना है। 2014 में शुरू हुई इस योजना के तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और बायोरेमेडिएशन जैसे कदम उठाए जा रहे हैं।
  • स्वच्छ भारत मिशन के तहत नदियों की सफाई, स्वच्छता और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए देश भर में विभिन्न पहल की गई हैं।
  • जल शक्ति अभियान जल शक्ति मंत्रालय द्वारा जल संरक्षण और प्रबंधन, नदियों सहित जल निकायों को पुनर्जीवित करने, जन जागरूकता, स्थानीय निकायों और समुदायों की भागीदारी और कुशल सिंचाई को बढ़ावा देने आदि के लिए शुरू किया गया है।
  • नदी जोड़ परियोजना: नदी जोड़ो परियोजना एक बड़े पैमाने पर प्रस्तावित सिविल इंजीनियरिंग परियोजना है, जिसका उद्देश्य भारतीय नदियों को जलाशयों और नहरों के माध्यम से आपस में जोड़ना है। जिससे भारत के कुछ हिस्सों में लगातार बाढ़ या पानी की कमी की समस्या को दूर किया जा सकता है। हालांकि, यह अभी भी विवादों में है।

नदियों का संरक्षण

नदियों के बिना भारत की कल्पना असंभव है। इन्हें संरक्षित करना और साफ करना हमारे लिए अति आवश्यक है क्योंकि इन नदियों से ही मनुष्य जीवन जुड़ा है। हम सभी को मिलकर सामूहिक प्रयास करने होंगे। जैसे कुछ उदाहरण निम्नलिखित है:

  • जागरूकता: लोगों को नदियों के महत्व को समझना होगा और प्रदूषण के खतरों के बारे में शिक्षित करना होगा।
  • प्रदूषण नियंत्रण: भारत में औद्योगिक और घरेलू कचरे को नदियों में जाने से रोकना जरूरी है। व इसके लिए सरकार ने काफी कदम भी उठाए है। परंतु हम सभी को अपनी जिम्मेदारी समझकर नदियों स्वच्छ में अहम भूमिका निभानी चाहिए।
  • सतत विकास: बांध निर्माण से नदी पारिस्थितिकी तंत्र, जल की गुणवत्ता, और जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। इन प्रभावों को कम करने के लिए, बाँध परियोजनाओं को ऐसे डिजाइन करना चाहिए जो नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखें, जल की गुणवत्ता को सुरक्षित रखें और आसपास के क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करें।

निष्कर्ष

भारत की नदियाँ देश की आत्मा हैं। ये न सिर्फ़ जल प्रदान करती हैं, बल्कि हमारी संस्कृति, आस्था और अर्थव्यवस्था को भी जीवत रखती हैं। लेकिन प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसे खतरों से इन्हें बचाने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है। आइए, इन नदियों को स्वच्छ और जीवत रखने का संकल्प लें।

FAQ

1. भारत की राष्ट्रीय नदी कौन सी है?

गंगा नदी को 4 नवंबर 2008 को भारत की राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया था।

2. भारत की सबसे लंबी नदी कौन सी है? 

गंगा नदी, जिसकी लंबाई 2,525 किमी है, भारत की सबसे लंबी नदी है।

3. सरस्वती नदी कहाँ है? 

सरस्वती नदी को ऋग्वेद में उल्लेखित एक पौराणिक नदी माना जाता है। कुछ शोधकर्ता इसे घग्घर-हकरा नदी से जोड़ते हैं, जो अब मौसमी नदी है।

4. नमामि गंगे योजना क्या है?  

नमामि गंगे एक सरकारी परियोजना है, जिसका उद्देश्य गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त करना और इसके पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करना है।

5. नदियों के प्रदूषण को कैसे रोका जा सकता है?  

प्रदूषण को रोकने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट, औद्योगिक कचरे पर नियंत्रण और जागरूकता अभियान ज़रूरी हैं।

भारत के खूबसूरत पर्वत: रोमांचित और प्राकृतिक सौंदर्य का संगम

भारत, अपनी विविध भौगोलिक संरचना के लिए जाना जाता है, जहाँ विशाल मैदान, घने जंगल और गहरी नदियाँ तो हैं ही, लेकिन पर्वतों की श्रृंखलाएं इस देश को और भी अक्रषित बनाती हैं। हिमालय की बर्फीली चोटियाँ हों या फिर दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट, भारत के पर्वत न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना हैं, बल्कि साहसिक पर्यटन और पुजनिएँ यात्राओं का केंद्र भी हैं। इस लेख में, हम भारत के कुछ सबसे खुबसूरत और महत्वपूर्ण पर्वतों की सैर करेंगे, उनकी विशेषताएँ जानेंगे और यह भी देखेंगे कि ये पर्वत पर्यटकों और पर्वतारोहियों के लिए क्यों खास हैं।

हिमालय: भारत का गौरव

जब बात भारत के पर्वतों की आती है, तो हिमालय का नाम सबसे पहले लिया जाता है। यह विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला है, जो भारत के उत्तरी हिस्से में फैली हुई है। हिमालय न केवल भारत की प्राकृतिक सीमा बनाता है, बल्कि यह सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

  • कंचनजंगा: भारत की सबसे ऊँची चोटी (8,586 मीटर) और विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी हैं। यह सिक्किम में स्थित है और पर्वतारोहण के लिए विदेशी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। हाल ही में, सरकार ने सिक्किम में 51 चोटियों को पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए खोल दिया है।
  • नंदा देवी: उत्तराखंड में स्थित यह चोटी (7,816 मीटर) अपनी सुंदरता और पवित्रता के लिए जानी जाती है। यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी है।
  • रोहतांग पास: हिमाचल प्रदेश के मनाली के पास 3,978 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग पास अपनी खतरनाक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। इसका नाम फारसी में “मृत शरीरों का ढेर” है, जो इसकी चुनौतीपूर्ण प्रकृति को दर्शाता है।

आक्रषित पर्वतारोहण और ट्रेकिंग

हिमालय भारत में साहसिक पर्यटन का सबसे बड़ा केंद्र है। सरकार ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम में 137 पर्वत चोटियों को विदेशी पर्वतारोहियों के लिए खोल दिया है। ये चोटियां न केवल रोमांच प्रदान करती हैं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देती हैं। मंत्रालय ऑफ टूरिज्म ने अपने “देखो अपना देश” वेबिनार में हिमालय में ट्रेकिंग को “जादुई अनुभव” बताया है।

भारत के पश्चिमी घाट

पश्चिमी घाट, जो दक्षिण और पश्चिमी भारत में फैले हुए है, यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। यह जैव-विविधता का खजाना है और प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग है।

  • अनामुडी: केरल में स्थित यह पश्चिमी घाट की सबसे ऊँची चोटी (2,695 मीटर) है। यह एराविकुलम नेशनल पार्क का हिस्सा है, जह आप नीलगिरी तहर जैसे दुर्लभ जीव देख सकते हैं।
  • डोड्डाबेट्टा: तमिलनाडु के नीलगिरी में स्थित यह चोटी (2,637 मीटर) ऊटी के पास है और पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय है।

पश्चिमी घाट की खूबसूरती का अंदाजा आप तब लगा सकते हैं, जब आप इसकी हरियाली और झरनों के बीच खो जाएं। यह क्षेत्र ट्रेकिंग, बर्ड वॉचिंग और फोटोग्राफी के लिए आदर्श और मनमोहित स्थान है।

अरावली: प्राचीन और ऐतिहासिक

अरावली पर्वत श्रृंखला भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जो गुजरात से लेकर दिल्ली तक फैली हुई है।

  • माउंट आबू: राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन, जो 1,722 मीटर की ऊंचाई पर है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता और जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।
  • गुरु शिखर: अरावली की सबसे ऊँची चोटी (1,722 मीटर), जो माउंट आबू में ही स्थित है।

अरावली की पहाड़ियाँ भले ही हिमालय जितनी ऊँची न हों, लेकिन इनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व कम नहीं है।

भारतीय पर्वतों का सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व

भारत के पर्वत न केवल पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये सांस्कृतिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी अहम हैं। हिमालय को कई धर्मों में पवित्र माना जाता है। उदाहरण के लिए, कैलाश पर्वत हिंदुओं और बौद्धों के लिए पवित्र है। वहीं, पश्चिमी घाट जैव-विविधता का केंद्र है, जहां कई दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। हाल ही में, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने नेपाल में सागरमाथा संवाद में पर्वतों के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए वैश्विक कार्रवाई की बात कही।

पर्वतों के खतरे: हिमस्खलन और पर्यावरण

पर्वतों की सुंदरता के साथ-साथ खतरे भी हैं। हिमालय में हिमस्खलन (avalanche) एक बड़ी समस्या है। सरकार ने हिमस्खलन के खतरों को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे हिमपात और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान (स्नो एंड एवलांच स्टडी इस्टैब्लिशमेंट (SASE)) के माध्यम से अनुसंधान। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतों के ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जो पर्यावरण के लिए खतरा है।

कैसे करें भारत के पर्वतों की सैर?

भारत के पर्वतों की यात्रा के लिए कुछ टिप्स:

  • सही समय चुनें: हिमालय में गर्मियों (मार्च-जून) और पश्चिमी घाट में मानसून के बाद (सितंबर-फरवरी) का समय सबसे अच्छा है।
  • उचित गियर: ट्रेकिंग के लिए अच्छे जूते, गर्म कपड़े और प्राथमिक चिकित्सा किट जरूरी है।
  • पर्यावरण का ध्यान: कचरा न फैलाएँ और स्थानीय नियमों का पालन करें।

निष्कर्ष

भारत के पर्वत न केवल प्रकृति का उपहार हैं, बल्कि ये हमारी संस्कृति, इतिहास और जैव-विविधता का भी प्रतीक हैं। चाहे आप साहसिक यात्रा के शौकीन हों या शांति की तलाश में हों, भारत के पर्वत आपको निराश नहीं करेंगे। तो, अगली बार जब आप छुट्टियों की योजना बनाएं, तो इन खूबसूरत पर्वतों को अपनी सूची में जरूर शामिल करें।

FAQ

1. भारत की सबसे ऊँची पर्वत चोटी कौन सी है?
भारत की सबसे ऊंची पर्वत चोटी कंचनजंगा है, जो सिक्किम में 8,586 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

2. हिमालय में ट्रेकिंग के लिए सबसे अच्छा समय कब है?
हिमालय में ट्रेकिंग के लिए मार्च से जून और सितंबर से नवंबर का समय सबसे अच्छा है।

3. पश्चिमी घाट में कौन सी चोटी सबसे ऊंची है?
पश्चिमी घाट की सबसे ऊँची चोटी अनामुडी है, जो केरल में 2,695 मीटर की ऊंचाई पर है।

4. क्या भारत के पर्वत विदेशी पर्यटकों के लिए खुले हैं?
हां, सरकार ने हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम में 137 चोटियों को विदेशी पर्वतारोहियों के लिए खोल दिया है।

5. भारत के पर्वतों की यात्रा के लिए क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?
उचित गियर, मौसम की जानकारी, और स्थानीय नियमों का पालन करना जरूरी है। साथ ही, पर्यावरण का ध्यान रखें।

भारत के प्रधानमंत्री: नरेंद्र मोदी

भारत का प्रधानमंत्री पद देश के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली पदों में से एक है। यह न केवल सरकार का नेतृत्व करता है, बल्कि देश की नीतियों, अर्थव्यवस्था और वैश्विक छवि को भी आकार देता है। वर्तमान में, नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारत के 14वें प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने 26 मई 2014 को पहली बार यह पद संभाला और 2024 में तीसरी बार शपथ ली। यह लेख उनके तीसरे कार्यकाल, उनकी नीतियों, उपलब्धियों और भारत के भविष्य के लिए उनकी योजनाओं पर केंद्रित है।

नरेंद्र मोदी: एक परिचय

नरेंद्र मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को गुजरात के वडनगर में हुआ था। वे भारतीय जनता पार्टी (BJP) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सदस्य हैं। 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के बाद, उन्होंने 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री पद संभाला। मोदी भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने लगातार तीन बार पूर्ण बहुमत के साथ यह पद हासिल किया।

  • शिक्षा और प्रारंभिक जीवन: वडनगर में एक साधारण परिवार में जन्मे मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और बाद में RSS के साथ जुड़ गए। 18 साल की उम्र में उनका विवाह जशोदाबेन से हुआ, जिसे उन्होंने जल्द ही छोड़ दिया।
  • राजनीतिक सफर: 1971 में RSS के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के बाद, 1985 में BJP में शामिल हुए और 1998 में महासचिव बने।

तीसरा कार्यकाल: 2024

9 जून 2024 को नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। 2024 के लोकसभा चुनाव में BJP ने पूर्ण बहुमत खो दिया, लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साथ मिलकर सरकार बनाई। यह जीत उनकी लोकप्रियता और नीतियों के प्रति जनता के विश्वास को दर्शाती है।

प्रमुख नीतियाँ और उपलब्धियाँ

मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण नीतियों और योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • आर्थिक सुधार: ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजनाएँ भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाने की दिशा में काम कर रही हैं। 2019 में भारत का ‘Ease of Doing Business’ रैंक 142 से बढ़कर 63 हो गया।
  • कृषि और ग्रामीण विकास: पीएम किसान सम्मान निधि योजना के तहत जून 2024 तक 9.2 करोड़ किसानों को 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि वितरित की गई।
  • स्वास्थ्य और शिक्षा: आयुष्मान भारत, दुनिया का सबसे बड़ा स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम, गरीबों को मुफ्त इलाज प्रदान करता है।
  • पर्यावरण और जलवायु: 2018 में शुरू किया गया अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहा है। मोदी को इसके लिए संयुक्त राष्ट्र का ‘चैंपियंस ऑफ द अर्थ’ पुरस्कार भी मिला।

2025 में भारत-पाकिस्तान तनाव और मोदी की भूमिका

2025 में भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव ने वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि मोदी सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ सख्त नीति अपनाई है, जिसमें भारत की धरती पर किसी भी हमले को युद्ध का कार्य माना जाएगा। इस नीति ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने में मदद की।

  • सीजफायर: भारत-पाकिस्तान संघर्ष 2025 में एक सीजफायर के साथ समाप्त हुआ, जिसमें मोदी की कूटनीतिक रणनीति की भूमिका अहम थी।
  • वैश्विक छवि: मोदी ने भारत को वैश्विक मंच पर एक मजबूत और जिम्मेदार शक्ति के रूप में स्थापित किया है।

चुनौतियाँ और आलोचनाएँ

मोदी के नेतृत्व की कई उपलब्धियों के बावजूद, कुछ मुद्दों पर उनकी आलोचना भी हुई है:

  • जम्मू-कश्मीर: 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के फैसले ने व्यापक बहस छेड़ दी।
  • नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA): इस कानून ने देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया।
  • COVID-19 प्रबंधन: विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, महामारी के दौरान भारत में 47 लाख लोगों की मृत्यु हुई, जिसके लिए सरकार की तैयारियों पर सवाल उठे।

भविष्य की योजनाएँ

मोदी सरकार का लक्ष्य 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है। इसके लिए कुछ प्रमुख योजनाएँ हैं:

  • डिजिटल इंडिया: डिजिटल गवर्नेंस को बढ़ावा देने के लिए नया OCI पोर्टल लॉन्च किया गया, जिसे मोदी ने सराहा।
  • परिवहन और बुनियादी ढांचा: UDAN योजना और हाईवे-रेलवे जैसे प्रोजेक्ट्स से कनेक्टिविटी बढ़ रही है।
  • शिक्षा और कौशल विकास: नई शिक्षा नीति 2020 के तहत शिक्षा प्रणाली को और समावेशी बनाया जा रहा है।

भारत के प्रधानमंत्री की भूमिका

भारत का प्रधानमंत्री देश का मुख्य कार्यकारी होता है, जो मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करता है। संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, प्रधानमंत्री को लोकसभा में बहुमत का समर्थन होना चाहिए। वे नीतियों को लागू करने, मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी, और राष्ट्रपति को सलाह देने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • जवाहरलाल नेहरू: भारत के पहले प्रधानमंत्री, जिन्होंने 17 साल तक सेवा की।
  • इंदिरा गांधी: एकमात्र महिला प्रधानमंत्री, जिन्होंने दो कार्यकालों में 15 साल तक नेतृत्व किया।
  • नरेंद्र मोदी: गैर-कांग्रेसी नेताओं में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले प्रधानमंत्री।

निष्कर्ष

नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। उनकी नीतियों ने देश को आर्थिक, सामाजिक और वैश्विक स्तर पर मजबूत किया है, लेकिन चुनौतियाँ भी बरकरार हैं। उनके नेतृत्व में भारत आत्मनिर्भरता और विकास की नई ऊँचाइयों को छू रहा है।

FAQs

1. भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री कौन हैं?

वर्तमान में नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने 9 जून 2024 को तीसरी बार शपथ ली।

2. नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल कब शुरू हुआ?

नरेंद्र मोदी ने 9 जून 2024 को तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।

3. भारत के पहले प्रधानमंत्री कौन थे?

जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक सेवा की।

4. भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री कौन थीं?

इंदिरा गांधी भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री थीं, जिन्होंने 1966 से 1977 और 1980 से 1984 तक सेवा की।

5. नरेंद्र मोदी की प्रमुख योजनाएँ क्या हैं?

मोदी की प्रमुख योजनाओं में मेक इन इंडिया, आयुष्मान भारत, पीएम किसान सम्मान निधि, और डिजिटल इंडिया शामिल हैं।

ऑपरेशन विजय: 1999 कारगिल युद्ध में भारत की ऐतिहासिक जीत

1999 का कारगिल युद्ध भारत-पाकिस्तान के बीच एक ऐसा सैन्य संघर्ष था, जिसने न केवल दोनों देशों के रिश्तों को प्रभावित किया, बल्कि भारत की सैन्य ताकत और वीरता को भी दुनिया के सामने लाया। इस युद्ध में भारत ने ऑपरेशन विजय के तहत पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़कर अपनी जमीन को वापस लिया। आइए, इस ऐतिहासिक युद्ध की पूरी कहानी को समझते हैं, जिसमें भारतीय सैनिकों ने असंभव को संभव कर दिखाया।

कारगिल युद्ध: क्यों हुआ यह युद्ध?

कारगिल युद्ध की शुरुआत तब हुई, जब पाकिस्तानी सेना और उनके समर्पित आतंकवादियों ने लाइन ऑफ कंट्रोल (LoC) को पार करके जम्मू-कश्मीर के कारगिल जिले में घुसपैठ की। यह घुसपैठ फरवरी 1999 में शुरू हुई, जिसे पाकिस्तान ने ऑपरेशन बद्र नाम दिया था। इसका मकसद था लद्दाख को कश्मीर से जोड़ने वाली श्रीनगर-लेह राजमार्ग (NH-1A) को काटना और सियाचिन ग्लेशियर से भारतीय सेना को हटाने के लिए दबाव बनाना।

पाकिस्तानी सैनिकों ने ऊंची चोटियों जैसे टाइगर हिल, तोपोलिंग, और बटालिक पर कब्जा कर लिया, जो रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण थीं। शुरुआत में पाकिस्तान ने दावा किया कि ये घुसपैठ कश्मीरी उग्रवादियों ने की, लेकिन बाद में भारतीय सेना द्वारा बरामद दस्तावेजों और युद्धबंदियों के बयानों से साफ हो गया कि इसमें पाकिस्तानी सेना का हाथ था।

ऑपरेशन विजय: भारत की जवाबी कार्रवाई

जब 3 मई 1999 को स्थानीय चरवाहों ने भारतीय सेना को घुसपैठ की सूचना दी, तो सेना ने तुरंत कार्रवाई शुरू की। ऑपरेशन विजय को आधिकारिक तौर पर 10 मई 1999 को लॉन्च किया गया, जिसमें करीब 2 लाख भारतीय सैनिकों को जुटाया गया। इस ऑपरेशन का लक्ष्य था:

  • घुसपैठियों को LoC के पार खदेड़ना
  • सभी कब्जा की गई चोटियों को वापस लेना
  • भारत की क्षेत्रीय अखंडता को बहाल करना

भारतीय सेना को बेहद चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में लड़ना पड़ा। ऊंचाई पर स्थित दुश्मन की स्थिति, ठंडा मौसम (-10 डिग्री सेल्सियस), और दुर्गम इलाके ने इस युद्ध को और मुश्किल बना दिया। फिर भी, भारतीय सैनिकों ने हार नहीं मानी।

ऑपरेशन सफेद सागर: वायुसेना की भूमिका

ऑपरेशन सफेद सागर के तहत भारतीय वायुसेना ने 26 मई 1999 से अपनी कार्रवाई शुरू की। यह पहली बार था जब वायुसेना ने 32,000 फीट की ऊंचाई पर हवाई हमले किए। मिग-21, मिग-27, और मिराज-2000 जैसे विमानों ने दुश्मन के ठिकानों को निशाना बनाया। हालांकि, इस दौरान तीन भारतीय विमान (मिग-21, मिग-27, और एक हेलीकॉप्टर) दुश्मन की गोलीबारी में नष्ट हो गए। फिर भी, वायुसेना ने सेना को महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान किया।

विडिओ मे देखे: ऑपरेशन सफेद सागर की पूरी कहानी

प्रमुख लड़ाइयाँ और जीत

कारगिल युद्ध में कई महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ लड़ी गईं, जिनमें भारतीय सैनिकों ने अदम्य साहस दिखाया। कुछ प्रमुख जीत इस प्रकार थीं:

  • तोपोलिंग की लड़ाई (13 जून 1999): द्रास सेक्टर में तोपोलिंग की चोटी को वापस लेना युद्ध का टर्निंग पॉइंट था। इस जीत ने भारतीय सेना का मनोबल बढ़ाया।
  • टाइगर हिल (4-5 जुलाई 1999): टाइगर हिल की 11 घंटे की भीषण लड़ाई के बाद भारतीय सेना ने इसे वापस लिया। कैप्टन विक्रम बत्रा की वीरता और उनका नारा “ये दिल मांगे मोर” आज भी याद किया जाता है।
  • द्रास और बटालिक सेक्टर: इन क्षेत्रों में भी भारतीय सेना ने एक के बाद एक चोटियों को दुश्मन से मुक्त कराया।

इन जीतों ने पाकिस्तानी सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया। 4 जुलाई 1999 को अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ मुलाकात के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपनी सेना को वापस बुलाने का ऐलान किया।

ऑपरेशन विजय की सफलता और कारगिल विजय दिवस

14 जुलाई 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऑपरेशन विजय को सफल घोषित किया। 26 जुलाई 1999 को युद्ध आधिकारिक रूप से खत्म हुआ, जब सभी पाकिस्तानी घुसपैठियों को भारतीय क्षेत्र से खदेड़ दिया गया। इस दिन को भारत में कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।

इस युद्ध में भारत के 527 सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी, जबकि 1363 सैनिक घायल हुए। पाकिस्तान को भी भारी नुकसान हुआ, जिसमें अनुमानित 400 से 4000 सैनिक मारे गए।

युद्ध के बाद का प्रभाव

कारगिल युद्ध ने भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को और तनावपूर्ण बना दिया। पाकिस्तान में इस हार के बाद राजनीतिक उथल-पुथल मची, और जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की सरकार का तख्ता पलट दिया। भारत में इस जीत ने राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाया और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को 1999 के आम चुनावों में भारी जीत दिलाई।

युद्ध के बाद भारत ने कारगिल रिव्यू कमेटी का गठन किया, जिसने खुफिया नाकामी और सीमा निगरानी में सुधार के लिए कई सिफारिशें कीं। इसके परिणामस्वरूप भारत ने LoC पर बाड़बंदी पूरी की और सैन्य आधुनिकीकरण पर जोर दिया।

वीर सैनिकों का सम्मान

कारगिल युद्ध के नायकों को कई सम्मान मिले। 4 परम वीर चक्र और 11 महावीर चक्र प्रदान किए गए। कैप्टन विक्रम बत्रा, ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव, लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे, और राइफलमैन संजय कुमार को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

द्रास में कारगिल युद्ध स्मारक बनाया गया, जहां हर साल विजय दिवस पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। इस स्मारक पर शहीदों के नाम और युद्ध से जुड़े दस्तावेज संरक्षित हैं।

FAQs

1. ऑपरेशन विजय क्या था?

ऑपरेशन विजय 1999 के कारगिल युद्ध में भारतीय सेना की सैन्य कार्रवाई थी, जिसका उद्देश्य पाकिस्तानी घुसपैठियों को LoC से खदेड़ना था।

2. कारगिल युद्ध कब और क्यों हुआ?

कारगिल युद्ध मई-जुलाई 1999 में हुआ, जब पाकिस्तानी सैनिकों ने LoC पार करके कारगिल में घुसपैठ की, ताकि श्रीनगर-लेह राजमार्ग को काट सकें।

3. कारगिल विजय दिवस कब मनाया जाता है?

कारगिल विजय दिवस हर साल 26 जुलाई को मनाया जाता है, जब भारत ने युद्ध में जीत हासिल की थी।

4. ऑपरेशन सफेद सागर क्या था?

ऑपरेशन सफेद सागर भारतीय वायुसेना की कार्रवाई थी, जिसमें ऊंची चोटियों पर पाकिस्तानी ठिकानों पर हवाई हमले किए गए।

5. कारगिल युद्ध में कितने भारतीय सैनिक शहीद हुए?

कारगिल युद्ध में 527 भारतीय सैनिक शहीद हुए और 1363 घायल हुए।

भारत के राष्ट्रपति का पद, चुनाव, शक्तियां व कर्तव्य

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भारत का राष्ट्रपति न केवल देश का संवैधानिक प्रमुख होता है, बल्कि यह पद भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक भी है। चाहे वह संसद का उद्घाटन हो, विधेयकों को मंजूरी देना हो या फिर आपातकाल में महत्वपूर्ण निर्णय लेना हो, राष्ट्रपति की भूमिका हमेशा चर्चा में रहती है। वर्तमान में, श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत की 15वीं राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने 25 जुलाई 2022 को यह पद संभाला। लेकिन क्या आप जानते हैं कि राष्ट्रपति का यह पद कैसे अस्तित्व में आया और उनकी शक्तियां कितनी व्यापक हैं? आइए, इस लेख में हम भारत के राष्ट्रपति की भूमिका, शक्तियों, और कुछ रोचक तथ्यों को विस्तार से जानते हैं।

राष्ट्रपति का पद का क्या मायने है?

भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, लेकिन 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही भारत गणतंत्र बना। इसी के साथ राष्ट्रपति का पद अस्तित्व में आया, जो पहले ब्रिटिश राजा और गवर्नर-जनरल की जगह लेता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने, जिन्होंने 1950 से 1962 तक इस पद को संभाला।

राष्ट्रपति को भारत का प्रथम नागरिक कहा जाता है, और वे भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर भी होते हैं। हालांकि, यह पद मुख्य रूप से औपचारिक है, और वास्तविक कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद के पास होती हैं। फिर भी, कुछ विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति के पास निर्णायक शक्तियां होती हैं, जिनका उपयोग संवैधानिक संकटों में किया जा सकता है।

राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?

राष्ट्रपति का चुनाव एक जटिल लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। इसे निर्वाचक मंडल (Electoral College) द्वारा किया जाता है, जिसमें निम्नलिखित लोग शामिल होते हैं:

  • संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के निर्वाचित सदस्य
  • राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य

यह प्रक्रिया आनुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमणीय मत (Single Transferable Vote) के आधार पर होती है। प्रत्येक मतदाता का वोट अलग-अलग वजन रखता है, जो उनके क्षेत्र की जनसंख्या और प्रतिनिधित्व पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, एक सांसद का वोट एक विधायक के वोट से अधिक मूल्य रख सकता है।

राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। यदि कोई राष्ट्रपति समय से पहले पद छोड़ता है, तो उपराष्ट्रपति अस्थायी रूप से यह जिम्मेदारी संभालता है।

राष्ट्रपति की शक्तियां और कर्तव्य

राष्ट्रपति की शक्तियां और कर्तव्यों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 53, 74, 111, और 123 में परिभाषित किया गया है। ये शक्तियां तीन मुख्य श्रेणियों में बांटी जा सकती हैं:

1. कार्यकारी शक्तियां

  • राष्ट्रपति केंद्र सरकार के सभी कार्यकारी कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं, हालांकि ये शक्तियां मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होती हैं। वे प्रधानमंत्री, मंत्रियों, और अन्य उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करते हैं। राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगी भी राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आती है।

2. विधायी शक्तियां

  • संसद द्वारा पारित विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक होती है। वे विधेयक को स्वीकार, अस्वीकार, या पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं (हालांकि, धन विधेयक के मामले में यह अधिकार सीमित है)। यदि संसद सत्र में नहीं है, तो राष्ट्रपति अध्यादेश (Ordinance) जारी कर सकते हैं, जो अस्थायी कानून के रूप में कार्य करता है।

3. आपातकालीन शक्तियां

  • राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 356), वित्तीय आपातकाल, और संवैधानिक संकट के दौरान विशेष शक्तियों का उपयोग कर सकते हैं। वे राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने का आदेश दे सकते हैं, यदि राज्य सरकार संवैधानिक रूप से कार्य करने में असमर्थ हो।

वर्तमान राष्ट्रपति: द्रौपदी मुर्मू का प्रेरणादायक सफर

श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी और दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। उनका जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के मयूरभंज जिले में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। 2015 से 2021 तक वे झारखंड की राज्यपाल रहीं, और उनकी सादगी और समर्पण ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाया।

उनका राष्ट्रपति बनना न केवल आदिवासी समुदाय के लिए गर्व का विषय है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की समावेशिता को भी दर्शाता है। हाल ही में, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट को 14 प्रश्नों का एक संदर्भ भेजा, जिसमें राष्ट्रपति की समयसीमा और शक्तियों पर सवाल शामिल थे।

रोचक तथ्य: क्या आप ये जानते हैं?

  • प्रथम महिला राष्ट्रपति: प्रतिभा पाटिल (2007-2012) भारत की पहली महिला राष्ट्रपति थीं।
  • सबसे लंबा कार्यकाल: डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 12 वर्षों तक (1950-1962) राष्ट्रपति के रूप में सेवा की।
  • राष्ट्रपति भवन: राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास, राष्ट्रपति भवन, दुनिया के सबसे बड़े आवासीय परिसरों में से एक है।
  • वेतन: राष्ट्रपति को प्रतिमाह 5 लाख रुपये का वेतन और अन्य सुविधाएं मिलती हैं।

राष्ट्रपति की भूमिका पर विवाद और चर्चाएं

राष्ट्रपति का पद हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है। कुछ लोग इसे केवल एक औपचारिक पद मानते हैं, जबकि अन्य इसे संवैधानिक संरक्षक के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, 1975 में आपातकाल के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के निर्णयों पर काफी विवाद हुआ था। हाल ही में, द्रौपदी मुर्मू द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए संदर्भ ने भी राष्ट्रपति की शक्तियों और समयसीमा पर नई बहस छेड़ दी है।

निष्कर्ष

भारत का राष्ट्रपति केवल एक संवैधानिक पद नहीं, बल्कि देश की एकता, अखंडता, और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतीक है। द्रौपदी मुर्मू जैसे नेताओं ने इस पद को और भी प्रेरणादायक बना दिया है। चाहे वह संवैधानिक जिम्मेदारियां हों या सामाजिक बदलाव की पहल, राष्ट्रपति की भूमिका भारतीय लोकतंत्र में हमेशा महत्वपूर्ण रहेगी।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

1. भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?
राष्ट्रपति का चुनाव निर्वाचक मंडल द्वारा होता है, जिसमें संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं। यह प्रक्रिया आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होती है।

2. राष्ट्रपति की मुख्य शक्तियां क्या हैं?
राष्ट्रपति के पास कार्यकारी, विधायी, और आपातकालीन शक्तियां होती हैं, जैसे विधेयकों को मंजूरी देना, अध्यादेश जारी करना, और राष्ट्रपति शासन लागू करना।

3. वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति कौन हैं?
वर्तमान में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत की राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने 25 जुलाई 2022 को पद ग्रहण किया।

4. क्या राष्ट्रपति का पद केवल औपचारिक है?
हालांकि राष्ट्रपति का पद मुख्य रूप से औपचारिक है, कुछ परिस्थितियों में उनकी शक्तियां निर्णायक हो सकती हैं, जैसे संवैधानिक संकट या आपातकाल में।

5. राष्ट्रपति भवन का क्या महत्व है?
राष्ट्रपति भवन राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास है और यह भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है। यह दुनिया के सबसे बड़े आवासीय परिसरों में से एक है।

कौन थे महाराजा सवाई जय सिंह? जिन्होंने जयपुर की स्थापना किए थे।

जयपुर, जिसे ‘पिंक सिटी’ के नाम से जाना जाता है, अपने रंग-बिरंगे बाजारों, शानदार किलों और समृद्ध इतिहास के लिए मशहूर है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस खूबसूरत शहर को बसाने वाले थे महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय? एक दूरदर्शी शासक, खगोलशास्त्री और कुशल कूटनीतिज्ञ, जिन्होंने न सिर्फ जयपुर को एक आधुनिक शहर के रूप में स्थापित किया, बल्कि खगोल विज्ञान में भी उनका योगदान अद्वितीय था। इस लेख मे, उनके जीवन, उपलब्धियों और जंतर-मंतर जैसे अनूठे योगदानों की कहानी को विस्तार से जानते हैं।

सवाई जय सिंह का प्रारंभिक जीवन

महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय का जन्म 3 नवंबर 1688 को आमेर (अब जयपुर) में हुआ था। उनके पिता, महाराजा बिशन सिंह, कछवाहा राजवंश के शासक थे। मात्र 11 वर्ष की उम्र में, 31 दिसंबर 1699 को पिता की मृत्यु के बाद, जय सिंह को आमेर का शासक बनाया गया। इतनी कम उम्र में सिंहासन संभालना आसान नहीं था, लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता और सूझबूझ ने उन्हें एक असाधारण शासक बनाया।

लेकिन क्या आपको पता है उनको सवाई की उपाधि औरंगजेब से मिली थी। 1701 में, जब जय सिंह केवल 15 वर्ष के थे, उन्होंने दक्कन में मराठों के खिलाफ मुगल सेना का समर्थन किया। उनकी वाक्पटुता और साहस से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें ‘सवाई’ की उपाधि दी, जिसका अर्थ है ‘अपने समकालीनों से डेढ़ गुना बेहतर’। यह उपाधि उनके वंशजों द्वारा भी गर्व के साथ अपनाई गई।

जयपुर शहर की स्थापना

जयपुर शहर सवाई जय सिंह की द्वारा बसायी गई थी। 18 नवंबर 1727 को उन्होंने इस शहर की नींव रखी, जो बाद में राजस्थान की राजधानी बनाई गई । इसका निर्माण के कारण थे, आमेर जो पहले कछवाहा राजवंश की राजधानी थी, पहाड़ी क्षेत्र में होने के कारण विकास की संभावनाओं में सीमित था। इसलिए, जय सिंह ने एक नया और सुनियोजित शहर बसाने का निर्णय लिया।

जयपुर को प्राचीन हिंदू ग्रिड पैटर्न पर बनाया गया, जिसका उल्लेख 3000 ईसा पूर्व की पुरातात्विक खोजों में मिलता है। शहर की योजना बंगाली वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य ने तैयार की, जो शिल्प-शास्त्रों के विद्वान थे। इसकी सुरक्षा और समृद्धि भी अद्वितीय थी। जयपुर की मोटी दीवारों और 17,000 सैनिकों की गैरीसन ने इसे सुरक्षित बनाया। व्यापारी देशभर से यहां बसे, जिसने शहर को आर्थिक समृद्धि दी।

आज जयपुर अपनी अनूठी वास्तुकला और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल ‘जंतर-मंतर’ के लिए विश्वविख्यात है।

खगोल विज्ञान में योगदान

सवाई जय सिंह का खगोल विज्ञान के प्रति प्रेम उनकी सबसे बड़ी पहचान है। 18वीं शताब्दी में, जब भारत में वैज्ञानिक प्रगति सीमित थी, उन्होंने खगोलशास्त्र को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उन्होंने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पांच जंतर-मंतर (वेधशालाएं) बनवाईं। इन वेधशालाओं का मुख्य उद्देश्य सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रहों की गति का सटीक अध्ययन करना था। इसके लिए खगोलीय तालिकाओं (जिज) का संकलन किया गया, जो ज्योतिषियों के लिए महत्वपूर्ण थीं।

उस समय यूरोपीय खगोलशास्त्री जहां दूरबीनों का उपयोग करते थे, जय सिंह ने नग्न आंखों से अवलोकन पर जोर दिया। उनका मानना था कि यह भारतीय संस्कृति के करीब है। इसके अलावा इन्होंने सबसे बड़ा सूर्ययंत्र की स्थापना की। जयपुर के जंतर-मंतर में स्थित ‘सम्राट यंत्र’ दुनिया का सबसे बड़ा पत्थर से बना सूर्यघड़ी है, जिसे 1734 में बनाया गया। यह यूनेस्को विश्व धरोहर का हिस्सा है।

सैन्य और कूटनीतिक कौशल

सवाई जय सिंह न केवल एक विद्वान थे, बल्कि एक कुशल सेनानायक और कूटनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने मुगल साम्राज्य के तहत कई युद्धों में हिस्सा लिया और बाद में मुगल आधिपत्य से स्वतंत्रता की दिशा में कदम उठाए।

जय सिंह ने औरंगजेब के साथ दक्कन युद्धों में हिस्सा लिया। 1732 में, मालवा के गवर्नर के रूप में, उनके पास 30,000 सैनिकों की सेना थी। मुगल प्रभाव से मुक्ति के लिए, उन्होंने 1716 में प्राचीन वैदिक अनुष्ठान ‘अश्वमेध यज्ञ’ और 1734 में ‘वाजपेय यज्ञ’ किया, जो सदियों बाद पहली बार हुआ। जय सिंह ने जैवाना तोप बनवाई, जो दुनिया की सबसे बड़ी पहियों वाली तोप है। यह उनकी सैन्य नवाचार की मिसाल है।

हालांकि, गंगवाना की लड़ाई (1741) में उनकी हार ने उनके राजपूताना में विस्तार के सपनों अधूरा रह गया। जिसके बाद 1743 में उनका निधन हो गया।

सवाई जय सिंह की विरासत

सवाई जय सिंह का योगदान केवल जयपुर शहर या जंतर-मंतर तक सीमित नहीं है। उन्होंने संस्कृति, विज्ञान और वास्तुकला के क्षेत्र में जो छाप छोड़ी, वह आज भी प्रासंगिक है।

उन्होंने हिंदू धर्म को बढ़ावा दिया और ब्राह्मण विद्वानों को जयपुर में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने संस्कृत में ‘जय सिंह कारिका’ नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा। जयपुर का सुनियोजित लेआउट आज भी शहरी नियोजन का एक बेहतरीन उदाहरण है। उनके निधन के बाद, उनके पुत्र ईश्वरी सिंह ने सिंहासन संभाला, लेकिन जय सिंह की तरह करिश्माई शासक कोई दूसरा नहीं हुआ।

सवाई जय सिंह से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

  • वे संस्कृत, गणित और ज्योतिष के विद्वान थे।
  • उन्होंने विदेशी खगोलशास्त्रियों को जयपुर आमंत्रित कर चर्चाएं आयोजित कीं।
  • जयपुर के जंतर-मंतर में 13 खगोलीय यंत्र हैं, जो आज भी कार्यरत हैं।
  • उनकी बनाई जैवाना तोप आज भी आमेर किले में देखी जा सकती है।

निष्कर्ष

महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय एक ऐसे शासक थे, जिन्होंने विज्ञान, वास्तुकला और शासन के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी। जयपुर शहर और जंतर-मंतर उनकी दूरदर्शिता के जीवंत प्रमाण हैं। उनका जीवन हमें सिखाता है कि बुद्धिमत्ता, साहस और नवाचार से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)

1. सवाई जय सिंह को ‘सवाई’ की उपाधि कैसे मिली?
उन्हें यह उपाधि मुगल सम्राट औरंगजेब ने 1701 में उनकी बुद्धिमत्ता और साहस के लिए दी थी। इसका अर्थ है ‘अपने समकालीनों से डेढ़ गुना बेहतर’।

2. जयपुर शहर की स्थापना कब हुई थी?
जयपुर की नींव 18 नवंबर 1727 को सवाई जय सिंह ने रखी थी।

3. जंतर-मंतर का क्या महत्व है?
जंतर-मंतर खगोलीय अवलोकन के लिए बनाई गई वेधशालाएं हैं, जिनमें सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों की गति का अध्ययन किया जाता था। जयपुर का जंतर-मंतर यूनेस्को विश्व धरोहर है।

4. सवाई जय सिंह ने कितनी वेधशालाएं बनवाईं?
उन्होंने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में कुल पांच जंतर-मंतर बनवाए।

5. सवाई जय सिंह की मृत्यु कब हुई?
उनका निधन 21 सितंबर 1743 को जयपुर में हुआ।

ऑपरेशन मेघदूत: भारत की ऐतिहासिक जीत

13 अप्रैल 1984 को भारत ने दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र, सियाचिन ग्लेशियर पर तिरंगा लहराकर इतिहास रच दिया। ऑपरेशन मेघदूत न सिर्फ एक सैन्य अभियान था, बल्कि यह भारतीय सेना की हिम्मत, रणनीति और समर्पण का प्रतीक बन गया। कराकोरम की बर्फीली चोटियों पर लड़ा गया यह युद्ध आज भी भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव का एक बड़ा कारण है। आइए, इस लेख में हम इस ऑपरेशन की पूरी कहानी, इसके पीछे की रणनीति और इसके महत्व को समझते हैं।

ऑपरेशन मेघदूत

ऑपरेशन मेघदूत भारतीय सशस्त्र बलों का वह अभियान था, जिसके तहत 1984 में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा किया गया। यह दुनिया का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र है, जहां तापमान -50 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। इस ऑपरेशन का नाम कालिदास के प्राचीन नाटक “मेघदूत” से प्रेरित था, जिसमें मेघ (बादल) एक दूत की तरह संदेश पहुंचाते हैं।

सियाचिन ग्लेशियर, जो लद्दाख के कराकोरम रेंज में स्थित है, भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्र रहा। 1949 के कराची समझौते में इस क्षेत्र की सीमा स्पष्ट नहीं थी, जिसके कारण दोनों देश इसे अपना मानते थे।

ऑपरेशन का उद्देश्य

  • पाकिस्तान को रोकना: खुफिया जानकारी मिली थी कि पाकिस्तान 17 अप्रैल 1984 को “ऑपरेशन अबाबील” के तहत सियाचिन पर कब्जा करने की योजना बना रहा था। भारत ने चार दिन पहले ही 13 अप्रैल को यह ऑपरेशन शुरू किया।
  • रणनीतिक महत्व: सियाचिन ग्लेशियर नुब्रा घाटी और साल्टोरो रिज को नियंत्रित करता है, जो लद्दाख और काराकोरम दर्रे के लिए महत्वपूर्ण है।
  • राष्ट्रीय गौरव: यह भारत की सैन्य ताकत और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन था।

ऑपरेशन की पृष्ठभूमि

1970 के दशक में पाकिस्तान ने सियाचिन क्षेत्र में विदेशी पर्वतारोहण अभियानों को अनुमति देकर इसे अपना हिस्सा बताने की कोशिश शुरू की। भारतीय खुफिया एजेंसियों ने एक जर्मन पर्वतारोहण दल से प्राप्त नक्शे में देखा कि पाकिस्तान ने सियाचिन को अपनी सीमा में दिखाया था।

इसके जवाब में, कर्नल नरिंदर “बुल” कुमार ने 1970 के अंत और 1980 के शुरूआती दशक में सियाचिन क्षेत्र में कई अभियान चलाए। उनकी रिपोर्ट्स ने भारतीय सेना को इस क्षेत्र का सटीक नक्शा और रणनीति बनाने में मदद की। कर्नल कुमार को आज “हाई-एल्टीट्यूड वारफेयर” का जनक माना जाता है।

1983 में पाकिस्तान की गतिविधियां बढ़ने लगीं। उसने लंदन से आर्कटिक कपड़े और पर्वतारोहण उपकरण खरीदे, जिससे भारत को शक हुआ कि वह सियाचिन पर कब्जे की तैयारी कर रहा है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस खतरे को भांपते हुए ऑपरेशन मेघदूत को मंजूरी दी।

ऑपरेशन का निष्पाद

ऑपरेशन मेघदूत की कमान लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम नाथ हून को सौंपी गई थी। 26 सेक्टर के कमांडर ब्रिगेडियर विजय चन्ना को साल्टोरो रिज पर कब्जे का जिम्मा मिला। उन्होंने 13 अप्रैल को ऑपरेशन शुरू करने का फैसला किया, क्योंकि यह बैसाखी का दिन था और पाकिस्तान को इसकी उम्मीद नहीं थी।

प्रमुख चरण

  • हवाई सहायता: भारतीय वायुसेना ने सैनिकों और सामान को ग्लेशियर के बेस तक पहुंचाने के लिए एन-12, एन-32 और आईएल-76 विमानों का इस्तेमाल किया। चेतक और चीता हेलिकॉप्टरों ने 1978 से ही इस क्षेत्र में उड़ानें शुरू कर दी थीं।
  • जमीनी अभियान: कुमाोन रेजिमेंट के एक बटालियन और लद्दाख स्काउट्स के सैनिकों ने बर्फीले जोजी ला दर्रे को पार किया। लगभग 300 सैनिकों ने बिलाफोंड ला और सिया ला जैसे प्रमुख दर्रों पर कब्जा किया।
  • रणनीतिक जीत: 1987 में ऑपरेशन राजीव के तहत नायब सूबेदार बाना सिंह ने 21,153 फीट ऊंचे क्वैद पोस्ट (बाद में बाना टॉप) पर कब्जा किया। उन्हें इसके लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

ऑपरेशन मेघदूत का महत्व

ऑपरेशन मेघदूत ने भारत को सियाचिन ग्लेशियर पर पूर्ण नियंत्रण दिलाया, जो आज भी बना हुआ है। यह दुनिया का सबसे लंबा चलने वाला सैन्य अभियान है।

प्रमुख उपलब्धियां

  • सामरिक लाभ: भारत ने साल्टोरो रिज के सभी प्रमुख दर्रों पर कब्जा कर लिया, जिससे पाकिस्तान को रणनीतिक नुकसान हुआ।
  • तकनीकी श्रेष्ठता: भारतीय सेना ने 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर टैंक और भारी हथियार तैनात किए, जो आज तक कोई और सेना नहीं कर पाई।
  • राष्ट्रीय गौरव: इस ऑपरेशन ने भारतीय सेना और वायुसेना की ताकत को दुनिया के सामने प्रदर्शित किया।

हालांकि, इस जीत की कीमत भी कम नहीं थी। लगभग 1,150 सैनिकों ने अपनी जान गंवाई, जिनमें से ज्यादातर मौसम की मार से शहीद हुए।

सियाचिन आज: चुनौतियां और तकनीकी प्रगति

सियाचिन आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का केंद्र है। 2003 में नियंत्रण रेखा (LoC) और वास्तविक जमीनी स्थिति रेखा (AGPL) पर युद्धविराम के बाद गोलीबारी कम हुई, लेकिन सैन्य उपस्थिति बनी हुई है।

आधुनिक तकनीक

  • संचार: वीएसएटी तकनीक ने सैनिकों के लिए संचार को आसान बनाया है।
  • लॉजिस्टिक्स: भारी-भरकम हेलिकॉप्टर और लॉजिस्टिक ड्रोन अब आपूर्ति पहुंचाते हैं।
  • मेडिकल सपोर्ट: ऊंचाई पर मौजूद डॉक्टर और मेडिकल टीमें सैनिकों की जान बचाने में अहम भूमिका निभाती हैं।

निष्कर्ष

ऑपरेशन मेघदूत भारतीय सेना की वीरता और रणनीतिक कुशलता का एक शानदार उदाहरण है। इसने न केवल सियाचिन ग्लेशियर पर भारत का दबदबा कायम किया, बल्कि दुनिया को दिखाया कि भारतीय सैनिक किसी भी चुनौती से पार पा सकते हैं। आज, 40 साल बाद भी, सियाचिन के सैनिक “सियाचिन वॉरियर्स” के नाम से जाने जाते हैं, जो देश की रक्षा के लिए हर पल तैयार रहते हैं।

FAQs

1. ऑपरेशन मेघदूत कब शुरू हुआ था?
ऑपरेशन मेघदूत 13 अप्रैल 1984 को शुरू हुआ था।

2. सियाचिन ग्लेशियर को दुनिया का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र क्यों कहा जाता है?
सियाचिन 20,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जहां तापमान -50 डिग्री तक गिरता है, जिससे यह दुनिया का सबसे चुनौतीपूर्ण युद्धक्षेत्र है।

3. ऑपरेशन मेघदूत का नेतृत्व किसने किया था?
इसका नेतृत्व लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम नाथ हून ने किया था।

4. क्या सियाचिन में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम है?
हां, 2003 से AGPL पर युद्धविराम लागू है, लेकिन सैन्य उपस्थिति बनी हुई है।

5. ऑपरेशन मेघदूत का नाम क्यों रखा गया?
यह नाम कालिदास के नाटक “मेघदूत” से प्रेरित है, जिसमें मेघ एक दूत की तरह कार्य करते हैं।